भारत में ऐसे हुआ था हैजा और प्लेग की वैक्सीन का प्रयोग, कोरोना से जंग में ले सकते हैं प्रेरणा


वाल्डेमर हाफकिन


मुंबई का हाफकिन जीवऔषध महानिर्माण मंडल कुछ साल पहले उस समय अचानक चर्चा में आ गया था जब शिवसेना ने इसके परिसर में बाल ठाकरे मेमोरियल के निर्माण की कोशिश शुरू कर दी थी। बाद में इस स्मारक की जगह तो बदल गई लेकिन इस पूरे प्रकरण ने यह बता दिया कि हम उस शख्स के योगदान को किस कदर भूल चुके हैं जिसने भारत को एक नहीं दो महामारियों से बाहर निकालने में बड़ी भूमिका निभाई थी।


यूक्रेन के ओदेसा में जन्मे वाल्डेमर मोर्डेकई हाफकिन का भारत पहुंचना महज उनके जीवन का एक संयोग ही था। यह बात अलग है कि जीवन के सबसे महत्वपूर्ण 22 वर्ष उन्होंने यहीं गुजारे। उन्हें सेंट पीट्सबर्ग से डॉक्टरेट तो हासिल हो गई लेकिन वे प्रोफेसर नहीं बन सके क्योंकि जार के रूसी साम्राज्य में एक यहूदी को इतना बड़ा ओहदा नहीं मिल सकता था। जिसके बाद उन्होंने अपने देश को अलविदा कहना ही ठीक समझा और वो जेनेवा पहुंच गए। यहां उन्हें फिजियोलॉजी पढ़ाने का काम तो मिल गया लेकिन वे संतुष्ट नहीं हुए और पेरिस पहुंच गए, अपने गुरु लुई पास्चर के पास।


पास्चर इंस्टीट्यूट में हालांकि उन्हें सहायक लाइब्रेरियन का पद मिला लेकिन बैक्टीरियोलॉजी का अपना अध्ययन उन्होंने जारी रखा, जो जल्द ही हैजा की वैक्सीन बनाने की ओर मुड़ गया। हाफकिन ने इस वैक्सीन का पहले मुर्गे और गिनीपिग पर परीक्षण किया और फिर खुद को वैक्सीन का इंजेक्शन लगाया। उन्होंने जो वैक्सीन तैयार की, उसके दो इंजेक्शन एक तय अंतराल में लगवाने पड़ते थे। संतुष्ट होने पर जब उन्होंने इसके बड़े पैमाने पर इस्तेमाल की बात सोची तो तमाम विशेषज्ञ उनसे असहमत दिखाई दिए। यहां तक कि उनके गुरु लुई पास्चर भी उनसे सहमत नहीं थे।


भारत में भारी विरोध
पहले ही एक वैक्सीन का दावा गलत साबित हो चुका था और यह कहा जाने लगा था कि हैजा मुख्य रूप से आंतों के भीतर का रोग है और इसमें वैक्सीन कामयाब नहीं हो सकती। इस बीच संयोग से हाफकिन की मुलाकात लॉर्ड फ्रेडरिक हेमिल्टन डफरिन से हुई जो उस समय पेरिस में ब्रिटिश राजदूत थे और इसके पहले भारत के वाइसराय भी रह चुके थे। भारत में बड़े पैमाने पर हैजा फैल चुका था। लॉर्ड फ्रेडरिक का मानना था कि इस वैक्सीन का इस्तेमाल बंगाल में होना चाहिए। उनकी कोशिशों ने जल्द ही हाफकिन को भारत पहुंचा दिया।


मार्च 1893 में जब वो कोलकाता पहुंचे तो कई तरह के विरोध वहां उनका इंतजार कर रहे थे। वैक्सीन कामयाब हो सकती है इस पर तो शक था ही, जर्नल ऑफ मेडिकल बायोग्राफी के अनुसार तब यह भी कहा जा रहा था कि पेरिस में उन्होंने जिस जीवाणु पर सारे प्रयोग किए हैं, भारत में हैजा फैलाने वाले जीवाणु की किस्म उससे अलग है इसलिए इसका कोई फायदा नहीं होने वाला।


यह भी कहा जा रहा था कि भारत के आम लोग महामारी को दैवी आपदा मानते हैं और इसके लिए ऐलोपैथिक दवा तक नहीं लेते। वो भला इसके लिए दो दर्द देने वाले इंजेक्शन लगवाने को कैसे तैयार होंगे? 


इन सारे विरोधों के बीच हाफकिन ने अपनी प्रयोगशाला तो बना कर दी लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह थी कि जब वे बंगाल पहुंचे तो वहां हैजा का प्रकोप खत्म हो चुका था। हालांकि अवध और पंजाब प्रांत में इसका अभी भी प्रकोप जारी था।


दुनिया का पहला बड़े पैमाने पर हुआ वैक्सीन परीक्षण
सबसे बड़ी दिक्कत सेना को आ रही थी और सेना ने ही हाफकिन से संपर्क किया। वो सबसे पहले आगरा गए और फिर उत्तर भारत की छावनियों में उन्होंने घूम-घूम कर लगभग 10 हजार सैनिकों को उन्होंने इंजेक्शन लगाए। प्रयोग सफल रहा और देश भर में हाफकिन की मांग होने लगी।


कोलकाता में हैजा का प्रकोप लौटा तो वहां उन्हें बुलाया गया। वो असम के चाय बागान मजदूरों के पास भी गए और गया की जेल में भी। कुछ ही समय में उन्होंने 42 हजार से ज्यादा लोगों को वैक्सीन दी। इसे दुनिया का पहला बड़े पैमाने पर हुआ वैक्सीन परीक्षण माना जाता है। जल्द ही हाफमैन ने वैक्सीन का नया संस्करण तैयार किया जिसमें एक ही इंजेक्शन लगवाने की जरूरत रह गई।


भारत हैजा की महामारी से मुक्त हुआ तो यहां व्यूबोनिक प्लेग ने दस्तक दी। प्लेग का कहर और भय हैजा से कहीं ज्यादा था क्योंकि यह आधे से ज्यादा संक्रमित लोगों की जान ले लेता है। इस बार भी वैक्सीन तैयार करने की जिम्मेदारी हाफकिन को दी गई और उन्हें इसके लिए मुंबई आमत्रित किया गया। जहां ग्रांट मेडिकल कॉलेज में उनके लिए प्रयोगशाला बनाई गई।


हाफकिन अक्टूबर 1896 में वहां पहुंचे और तीन महीने के अंदर ही उन्होंने न सिर्फ वैक्सीन तैयार कर ली बल्कि एक खरगोश पर इसका पहला सफल परीक्षण भी कर लिया। इस बार भी उन्होंने वही तरीका अपनाया और सबसे पहला मानव परीक्षण खुद पर किया। लेकिन इसका असल परीक्षण हुआ पड़ोस की भायखला जेल के कैदियों पर। उन दिनों दवाओं का कैदियों पर परीक्षण कोई नई बात नहीं थी।


इसके लिए 154 कैदियों को तैयार किया, उन्हें पहले प्लेग से संक्रमित किया गया। वैक्सीन लगाने के पहले ही दिन तीन कैदियों की मृत्यु हो गई। अगले चंद सप्ताह में कुछ और कैदियों की भी मृत्यु हुई। लेकिन कुलजमा इस प्रयोग को कामयाब माना गया और इसके तुरंत बाद संक्रमण वाले इलाकों में एक हजार लोगों को इस वैक्सीन के इंजेक्शन लगाए गए।


दुनिया के चिकित्सा जगत में भी इस वैक्सीन को मोटे तौर पर कामयाब माना गया। हालांकि बाद में दीर्घकालिक आकलन में कहा गया कि यह 50 फीसदी मामलों में ही कामयाब रही। लेकिन एक महामारी के दौरान 50 फीसदी लोगों की जान बचा लेना भी उपलब्धि ही माना जाएगा।


हाफकिन अगले कुछ साल तक इस वैक्सीन पर देशभर में प्रयोग करते रहे। लेकिन इसी दौरान पंजाब के एक गांव मुल्कोवाल में एक ऐसी घटना हो गई जिसे चिकित्सा के इतिहास में मुल्कोवाल डिजास्टर कहा जाता है। 30 अक्टूबर 1902 को इस गांव में 107 लोगों को यह वैक्सीन दी गई। चंद रोज बाद इसमें से 19 लोगों में टिटनस के लक्षण पाए गए और जल्द ही उन सब की मौत हो गई। इसका आरोप हाफकिन पर आया और उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। ये खबर इतनी फैली कि बात ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स तक में उठी।


हताश हाफकिन पेरिस लौट गए और वहां से चिट्ठियों के जरिये अपना बचाव करते रहे। आगे जांच हुई तो पता चला कि उनकी कोई गलती नहीं थी। उनके एक सहायक ने वैक्सीन की बोतल पर गंदा ढक्कन लगा दिया था जिससे यह समस्या पैदा हुई। इसके बाद हाफकिन भारत लौटे लेकिन इस बार उन्हें कोलकाता की बायोलॉजिकल लेब्रोटरी का निदेशक बना दिया गया। इस प्रयोगशाला में वैक्सीन शोध और उत्पादन की कोई व्यवस्था नहीं थी। शायद मुल्कोवाल के आरोपों ने उनका साथ नहीं छोड़ा था।


हाफकिन बन सकते हैं प्रेरणा
कहा जाता है कि इसी दौर में वो जैन धर्म के अहिंसावाद से प्रभावित हुए और उन्होंने पशु -पक्षियों के इस्तेमाल को पूरी तरह बंद कर दिया। प्रसिद्ध वैक्टीरियोलॉजिस्ट विलियम बलोच ने अपने संस्मरण में लिखा है कि कोलकाता के अपने अंतिम दौर में हाफकिन ऐसी चीजों को लेकर झक्की से हो गए थे। कहा जाता है कि एक बार उन्होंने अपने एक सहयोगी को सिर्फ इसीलिए बहुत ज्यादा डांट दिया था क्योंकि वह एक टेपवर्म का डिसेक्शन कर रहा था।


इन्हीं हालात के बीच 1915 में जब वो 55 साल के हुए तो उन्हें रिटायर कर दिया गया और वो फिर यूरोप लौट गए। तीन साल बाद भारत को उनकी याद एक बार तब आई जब स्पैनिश फ्लू की महामारी फैली। लेकिन इस बार हाफकिन उपलब्ध नहीं थे। विज्ञान से दूर वो अब अपना जीवन यहूदी धार्मिक मान्यताओं के हिसाब से जीने की कोशिश कर रहे थे। जिसे लेकर उन्होंने एक लेख भी लिखा- 'प्ली फॉर आर्थोडॉक्सी'- यानी कट्टरता के तर्क।


उनकी सफलताओं के लिए कुछ लोगों ने उन्हें 'महात्मा हाफकिन' भी कहा। इसी शीर्षक से उन पर एक किताब भी प्रकाशित हुई। 1925 में ग्रांट हास्पिटल में उनकी प्रयोगशाला का नाम बदलकर हाफकिन इंस्टीट्यूट कर दिया गया। 1964 में भारतीय डाक विभाग ने उन पर एक टिकट भी जारी किया।


इस समय जब पूरी दुनिया के वैज्ञानिक कोविड-19 की वैक्सीन खोजने में जुटे हैं, हाफकिन उनके लिए एक प्रेरणा हो सकते हैं।